दिल्ली / – केंद्र की सत्तासीन भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने रविवार को महाराष्ट्र के राज्यपाल चंद्रपुरम पोन्नुसामी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया, जो तमिलनाडु के प्रभावशाली ओबीसी समुदाय से आते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की पृष्ठभूमि वाले राधाकृष्णन तमिलनाडु के एक वरिष्ठ भाजपा नेता रहे हैं। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक और पार्टी के सहयोगी दलों के साथ विचार-विमर्श के बाद उनके नाम की घोषणा की।
NDA उम्मीदवार की घोषणा के बाद अब तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके और उसके क्षेत्रीय सहयोगियों पर सबकी नजरें आ टिकी हैं क्योंकि सीपी राधाकृष्णन को चुनावी मैदान में उतारकर NDA ने इंडिया अलायंस खासकर DMK को डबल टेंशन दे दिया है। पहली टेंशन तो यह है कि राधाकृष्णन राज्य के प्रभावशाली ओबीसी समुदाय से आते हैं, जिसके वोट बैंक पर डीएमके की बड़ी पकड़ रही है। दूसरा कि वह तमिलनाडु से हैं। यानी क्षेत्रीय गौरव हैं, जिसकी हिमायती डीएमके रही है।
राधाकृष्णन का विरोध DMK को पड़ सकता है भारी?
कांग्रेस समेत उसके गठबंधन के कई दल भी ओबीसी हितों के समर्थक रहे हैं। ऐसे में राधाकृष्णन का विरोध करना डीएमके समेत इंडिया अलायंस को भारी पड़ सकता है क्योंकि अगले साल वहां विधानसभा चुनाव होने हैं।। दूसरी बड़ी बात कि राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति चुनाव में उातरकर भाजपा उन्हें तमिलनाडु गौरव के रूप में खूब प्रचारित कर सकती है। डीएमके के मुख्य प्रतिद्वंद्वी AIADMK भी इस मुद्दे को भुना सकती है। तमिलनाडु विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पलानीस्वामी ने कहा है कि राधाकृष्णन, जिन्हें प्यार से सीपीआर कहा जाता है, को उनकी सार्वजनिक सेवा और जनता के प्रति समर्पण के लिए पुरस्कृत किया गया है।
बहरहाल, भाजपा के इस दांव की काट क्या हो, इस पर मंथन और विचार-विमर्श के लिए विपक्षी दलों के नेता आज यानी सोमवार को बैठक करने वाले हैं। इसमें 9 सितंबर को होने वाले उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार समेत रणनीति पर चर्चा होने की उम्मीद है। यहां ये बात गौर करने वाली है कि पिछले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में, क्षेत्रीय भावनाओं के आधार पर गठबंधन/पार्टी के बीच मतदान हुआ था। भाजपा को उम्मीद है कि राधाकृष्णन के मामले में भी ऐसा ही हो सकता है।
कब-कब विरोधियों ने दिया समर्थन
बता दें कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में पहले भी क्षेत्रीय आधार पर क्रॉस-पार्टी वोटिंग देखी गई है। कांग्रेस ने जब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में प्रणब मुखर्जी को खड़ा किया था, तब लेफ्ट और टीएमसी ने किसी पहले बंगाली शख्स के राष्ट्रपति बनने की खुशी में उन्हें अपना समर्थन दिया था। इसी तरह, यूपीए ने जब प्रतिभा देवीसिंह पाटिल को इस शीर्ष पद के लिए खड़ा किया था, तब शिवसेना ने महाराष्ट्र से आने वालीं पाटिल को अपना समर्थन दिया था। इसी तरह, जब इंदिरा गांधी ने ज्ञानी जैल सिंह को कांग्रेस का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था, तब कट्टर प्रतिद्वंद्वी अकाली दल ने उनका समर्थन करते हुए कहा था कि वह राष्ट्रपति बनने वाले पहले सिख होंगे।
एपीजे अब्दुल कलाम के नाम पर सपा-कांग्रेस ने दिया था साथ
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए ने भी जब राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में एपीजे अब्दुल कलाम को सामने लाया था, तब समाजवादी पार्टी और कांग्रेस, दोनों ने उनका समर्थन किया था क्योंकि दोनों ही एक मुस्लिम को राष्ट्रपति बनाने के लिए उत्सुक थे। चूंकि, इन चुनावों में पार्टी व्हिप लागू नहीं होते, इसलिए क्रॉस वोटिंग के कारण यह चुनाव ज़्यादा ‘लचीला’ हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप कई विपक्षी दल खुलकर सरकार समर्थित उम्मीदवार का समर्थन करते हैं। राधाकृष्णन के मामले में भी ऐसी आशंका घर करने लगी है कि DMK उनका साथ दे सकती है।
ब्यूरो रिपोर्ट





