जितिया व्रत, जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहते हैं, आश्विन मास की अष्टमी को संतान की दीर्घायु के लिए किया जाता है। इस व्रत में माताएं निर्जला उपवास रखती हैं और जीमूतवाहन की कथा सुनती हैं। कथा के अनुसार, व्रत के प्रभाव से संतान की रक्षा होती है और सौभाग्य में वृद्धि होती है। यहां पढ़ें जितिया व्रत की कथा।
आश्विन मास की अष्टमी तिथि के दिन जितिया व्रत (जिसे जीवित्पुत्रिका व्रत भी कहा जाता है) रखा जाता है। यह व्रत माताएं अपनी संतान की दीर्घायु और रक्षा के लिए रखती हैं। अपनी संतान की सफलता और उनके उत्तम भविष्य की कामना के लिए यह व्रत करती हैं। माताएं इस दिन कठोर जप तप करती हैं। माताएं निर्जला व्रत करती हैं। व्रत का पारण अगले दिन नवमी तिथि में किया जाता है। व्रत करने वाली महिलाओं को इस कथा का पाठ जरुर करना चाहिए। ताकि व्रत का पूरा फल मिल सके।
नैमिषारण्य के ऋषियों ने संसार के कल्याणार्थ सूत महर्षि से बोले “हे सूतजी! कराल काल अर्थात् कलियुग में लोग अपनी संतान को दीर्घायु कैसे बना सकेंगे? कोई विशेष उपाय बताइए। सूत जी ने उत्तर दिया कि जब द्वापर का अंत हुआ और कलयुग आरंभ हुआ, तब इसी प्रकार की समस्या उठी थी। तब कई शोकाकुल स्त्रियां इस विषय पर विचार-विमर्श कर रही थीं और अंततः वे सत्य-वर्णन करने वाले महात्मा गौतम के पास गई, ताकि उनसे उपाय जानें।
गौतम देव आनंद से बैठे थे; स्त्रियां गौतम देव को मस्तक झुकाकर प्रणाम करके बैठ जाती हैं और दु:खविह्वल आवाज में पूछती हैं “हे प्रभु! इस कलयुग में हमारे संतान किस प्रकार जीवित रह सकेंगे? क्या कोई व्रत या ऐसा उपाय है जिसे अपनाकर संतान दीर्घायु हो सके?” गौतम ने कहा कि वह उन्हें वही बतायेंगे जो उन्होंने पहले ही कहीं सुना हुआ था;
गौतम देव आगे कहते हैं कि जब महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ और उसके पश्चात पांडव और अन्य लोग अश्वत्थामा के कृत्य से भारी दुखी थे, द्रौपदी भी शोक में थी। पुत्रों की मृत्यु के कारण दुःखी होकर द्रौपदी और उन की सहेलियां ब्राह्मण श्रेष्ठ धौम्य के पास गईं और उनसे कहा “हे विप्रेन्द्र! संतान को दीर्घायु कैसे किया जा सके? कृपया उपदेश दीजिए।” धौम्य ने एक प्राचीन कथा सुनानी आरंभ की।

धौम्य के अनुसार सतयुग में जीमूतवाहन नामक एक राजा था, जो सत्य वचन और धर्माचरण के लिए प्रसिद्ध था। एक बार वह अपनी पत्नी के साथ ससुराल गया और वहीं ठहर गया। उसी रात्रि वहां एक वृद्ध माता अत्यंत शोक ग्रस्त होकर रो रही थी, क्योंकि उसका पुत्र मर गया था। उसका दुख और रोना देखकर राजा का हृदय व्याकुल हो उठा। वह तुरन्त जा कर उस वृद्धा से पूछा कि आपके पुत्र को आखिर हुआ क्या है। वृद्धा ने कहा कि प्रतिदिन गरुड़ आता है और गांव के लड़कों को खा लेता है। मेरा पुत्र भी उसके हाथों मर गया।” यह सुनकर जीमूतवाहन ने कहा “हे माता! अब आप रोओ मत; मैं आपके पुत्र को बचाने की चेष्टा करूंगा।
राजा उस स्थान पर गया जहां गरुड़ प्राणियों का भक्षण करता था। जैसे ही गरुड़ आकर मांस खाने लगा, उसने राजा का बायां अंग खा लिया। दर्द से व्याकुल राजा ने तुरंत अपना दाहिना अंग गरुड़ के सामने कर दिया। गरुड़ आश्चर्यचकित होकर बोला “तुम कौन हो? देवता या मनुष्य?” राजा ने कहा-‘हे पक्षीराज ! इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है, तुम अपनी इच्छा भरके मेरा मांस खाओ’। यह सुनकर गरुड़ रुक गए और बड़े आदर से राजा के जन्म और कुल की बात पूछने लगे। तब राजा ने विनम्रता से अपना परिचय दिया माता शैव्या, पिता शालिवाहन, सूर्यवंशी जीमूतवाहन और कहा कि वह त्याग और दया के कारण सब कुछ सहन करता है। राजा के उदारता और त्याग को देखकर गरुड़ विशिष्ट प्रसन्न हुआ और बोला “हे महात्मन्! आप जो चाहो मांगो। तब राजा ने अनुरोध किया कि वे अब तक जिन प्राणियों को गरुड़ ने खाया है, वे सब पुनः जीवित हो जाएं और आगे से गरुड़ बच्चों को न खाए और जहां भी जो उत्पन्न हों वे दीर्घजीवी हों।
गरुड़ ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की और वरदान देकर अमृत प्राप्त करने के लिए नाग लोक चले गए। वहां से अमृत लेकर वे लौटे और उन मरे प्राणियों की हड्डियों पर अमृत बरसा दिया। जैसे ही उसने अमृत बरसाया सभी मरे हुए प्राणी जीवित हो उठे जिनको पहले गरुड़ खा चुका था। इस प्रकार जीमूतवाहन के त्याग और गरुड़ की कृपा से जन-जन के कष्ट दूर हुए और प्रजा का कल्याण हुआ।
उस समय गरुड़ ने राजा की दयालुता देखकर एक और वरदान दिया और कहा कि आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है। आज ही आपने यहां की प्रजा को जीवनदान दिया है। अबसे यह दिन ब्रह्मभाव हो गया है। जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है वही त्रैलोक्य से पूजित दुर्गा अमृत प्राप्त करने के अर्थ में जीवित्पुत्रिका कहलाई हैं। गरुड़ आगे कहता है कि जो स्त्रियां इस जीवित्पुत्रिका का व्रत करेंगी और कुश की आकृति बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और वंश की भी वृद्धि होती रहेगी। हे राजन् ! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करें, यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत न कर शुद्ध अष्टमी को व्रत करें और नवमी में पारण करें। यदि इस पर ध्यान न दिया गया तो फल नष्ट हो ही जाएगा और सौभाग्य तो अवश्य नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार वर देकर गरुड़ वैकुण्ठ चला गया और राजा जीमूतवाहन अपनी पत्नी के साथ अपने नगर लौट आए।
धौम्य ने द्रौपदी से कहा कि “हे देवी! मैंने तुम्हें वह दुर्लभ व्रत बताया जो संतान को दीर्घायु बनाए रखता है। यदि तुम और तुम्हारी सहेलियां इस विधि से व्रत करोगी तो तुम्हें मनोवांछित फल प्राप्त होंगे। द्रौपदी ने यह बात सुनी और अपने सखियों के साथ वह उत्तम व्रत किया। गौतम ने कहा-यह व्रत और इसके प्रभाव को किसी एक चिह्न ने सुन लिया और अपनी सखी सियारिन को बतलाया। इसके बाद पीपल वृक्ष की शाखा पर बैठकर उस चिह्न ने और उस वृक्ष के खोंते में बैठकर सियारिन ने भी व्रत किया।
फिर वही चिह्नी किसी उत्तम ब्राह्मण के मुंह से यह कथा सुन आई और पीपल के खोंते में बैठी हुई अपनी सखी को सुनाया। सियारिन ने आधी कथा सुनी थी कि उसे भूख लग गई और वह उसी समय शव से भरे हुए श्मशान में पहुंची। वहां उसने इच्छा भर मांस का भोजन किया और चिह्नी बिना कुछ खाए-पिए रह गयी और सवेरा हो गया। सबेरे वह गौशाले में गई और वहां गौ का दूध पिया। इस तरह नवमी को उसने पारण किया। कुछ दिनों बाद वे दोनों मर गईं और अयोध्या में किसी धनी व्यापारी के घर में जन्मीं। संयोग से उन दोनों का जन्म एक ही घर में हुआ, जिसमें सियारिन ज्येष्ठ हुई और चिह्न छोटी।
वे दोनों सभी शुभ लक्षणों से युक्त थीं। इसलिए बड़ी लड़की काशिराज के और छोटी उसके मंत्री के साथ गार्हपत्य अग्नि के सामने विधिपूर्वक ब्याही गई । पूर्वजन्म के कर्मफल से वह मृगनयनी रानी हुई। जिस किसी भी संतान को उत्पन्न करती, वह मर जाती थी और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करने वाली मंत्री की पत्नी ने अष्ट वसुओं के सदृश तेजस्वी आठ बेटे उत्पन्न किए और सभी जीवित रह गए। अपनी बहन के पुत्रों को जीवित देखकर ईर्ष्यावश राजपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि, यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहते हो तो इस मंत्री के भी पुत्रों को उसी जगह भेज दो जहां मेरे बेटे गए हैं अर्थात् इन्हें मार डालो। यह सुनकर राजा ने उस मंत्री के पुत्रों को मारने के लिए कई ने प्रकार के उद्योग किए। पर मंत्री की पत्नी ने जीवित्पुत्रिका के पुण्य-बल से बचा लिया। एक दिन राजा ने अपने आदमियों से उन पुत्रों का सिर कटवाकर पिटारी में रखवाया और वह पिटारी उनकी माता (मंत्री- पत्नी) के पास भेज दिया। किन्तु वे आठों शिर बेश कीमती जवाहरात हो गए और भले-चंगे वे आठों लड़के अपनी माता के पास वापस चले गए। उनको जीवित देखकर राजा की पत्नी को बड़ा विस्मय हुआ। अंत में, वह मंत्री की पत्नी के पास आई और उसने पूछा- बहन ! तुमने कौन-सा ऐसा पुण्य किया है जिससे बार- बार मारे जाने पर भी तुम्हारे बेटे नहीं मरते। इस पर मंत्री की पत्नी ने कहा-पूर्व जन्म में मैं चिह्ल थी और तुम सियारिन। दोनों ने व्रत किया था।
तुमने व्रत के नियमों का भली-भांति पालन नहीं किया था और मैंने किया था, इसी दोष से हे बहन! तुम्हारे बेटे नहीं जीते हैं। ओ राजरानी ! अब भी तुम उस जीवित्पुत्रिका व्रत को करो तो तुम्हारे बेटे दीर्घायु होंगे। मैं तुमसे सच कह रही हूं। उसके कथनानुसार रानी ने व्रत किया। तभी से उसके कई बेटे सुंदर और दीर्घायु होकर बड़े-बड़े राजा हुए। सूत जी कहते हैं कि, सब प्रकार का आनन्द देने वाला मैंने यह दिव्य व्रत बतलाया। स्त्रियां चिरंजीवी संतान चाहती हों तो उन्हें इस व्रत को पूरे विधि विधान से करना चाहिए।
ब्युरो रिपोर्ट





